ऐसा लोकतंत्र जिसमें शासन और प्रशासन गाँव-गाँव, द्वार-द्वार दस्तक दे क्या यह संभव है? - Savdha chhattisgarh
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ऐसा लोकतंत्र जिसमें शासन और प्रशासन गाँव-गाँव, द्वार-द्वार दस्तक दे क्या यह संभव है?


गरियाबंद।
हमारा प्रदेश छत्तीसगढ़ में आजकल मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय द्वारा मुख्यमंत्री निवास में जनदर्शन का आयोजन कर जनसमस्याओं को सुलझाने का दावा कर रहे है जिसमें प्रदेश भर की वही जनता जो शासन और प्रशासन से गोहार लगाते-लगाते थक चुके थे उनकी वही समस्याओं को मुख्यमंत्री से मिलकर और मुख्यमंत्री द्वारा पुनः उसी प्रशासनिक अमले के हाथ में पत्र सौंपकर यह दंभ भर रहे है कि समस्याएं सुलझ गयी। आखिर मुख्यमंत्री महोदय क्या साबित करना चाहते है कि पंद्रह साल तक रमन सिंह जो समस्या नही सुलझा सके उसे विष्णुदेव साय ने सुलझा दिया। क्या यह इतना आसान मामला है जितना कि बताया जा रहा है।

दरअसल हमें जो लोकतंत्र मिला है उसमें ऐसी कोई व्यवस्था ही नही है कि समस्याएं सुलझ जाये। समस्याओं को उलझा कर रखना ही इस तथाकथित लोकतंत्र की खासियत रहा है। नेता, अफसर, गुंडे इस लोकतंत्र की सान है जिसका ढ़ोल हम पिटते रहते है। ऐसे अनेको फिल्म अब तक बड़े पर्दे पर हम देखते रहे है कि लोकतंत्र नेता, अफसर और गंडों की जागिर के अलावा कुछ और नही रहा। अनेको ज्वार के बावजूद भी फिल्म की पटकथा को हम जल्द ही भूला देते है। कहते है कि फिल्म समाज का दर्पण है जिसमें वही दिखाया जाता है जो समाज में घटित हो रहा है। बावजूद अबतक कोई भी क्रांति का सुत्रपात्र भारत में देखने को नही मिला।

सच सही है कि देश और प्रदेश की जनता आज शासन और प्रशासन के जाल में उलझ चुका है जो किसी के भी सुलझाने से नही सुलझ सकता, सिवाय धनकुबेरों के कोई इस जाल को तोड़ नही पायेगा, आज भी और भविष्य में कभी भी। अंग्रेजों ने हमें शिक्षा, चिकित्सा, ज्ञान, विज्ञान, टेक्नोलॉजी के साथ-साथ लोकतंत्र भी दी, भले ही हमें लूटा और सताया लेकिन उनका आजमाया यह लोकतंत्र पर कुछ मुट्ठी भर नेता, अफसर और दूसरे अन्य तंत्र इस कदर हावी है कि यह लोकतंत्र जनता के लिए नकारा साबित हो रहा है इसमें कोई संदेह नही।

सवाल है कि क्या भारत में कभी ऐसा भी लोकतंत्र आवेगा जिसमें नेता, अफसर के साथ-साथ पूरा सरकारी तंत्र जन समस्याओं के निराकरण के लिये द्वार-द्वार दस्तक दें। जिसके जबाव में हाँ कहा जा सकता है क्यों कि यदि ऐसा नहीं हुआ तो इस देश की जनता एक दिन इस चुनावी लोकतंत्र को दफन करना ही उचित समझेगे। इसलिए हमारे शासन व्यवस्था को एक दिन यह तो बदलाव करना पड़ेगा कि जनता दफ्तर में नही बल्कि अफसर गाँव गाँव और द्वार-द्वार दस्तक दे जनसमस्याओं का निराकरण करती दिखेगी तभी यह तथाकथित लोकतंत्र जिंदा रहेगी वर्णा इसे दफनाने तैयार रहना होगा। कहते है उम्मीद पर दुनिया कायम है। इसलिए हमें उनदिनों की प्रतिक्षा और तैयारी दोनों ही प्रारंभ कर देनी चाहिए जब नेता, अफसर और तंत्र का यह गठजोड़ बेमानी हो जावेगा।

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