साहू समाज के लिए धर्मांतरण का रोग नासूर बनता जा रहा है समाजसेवी गणेश साहू - Savdha chhattisgarh
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साहू समाज के लिए धर्मांतरण का रोग नासूर बनता जा रहा है समाजसेवी गणेश साहू

 



परमेश्वर कुमार साहू@गरियाबंद।राजिम पूरे प्रदेश में आदिवासी समाज के बाद दूसरे नंबर पर साहू समाज धर्मांतरण रूपी महामारी की चपेट में आता जा रहा है। एक दौर था जब भोले भाले और मासूम आदिवासियों को सेवा के नाम पर बरगलाया गया और व्यापक पैमाने पर धर्मांतरण का खेल प्रदेश में खेला गया। नक्सलियों के छत्रछाया में तब सुदुर घने जंगलों के बीच यह सेवा-सेवा का खेल खेला गया जिसमें कथित राजनैतिक संरक्षण भी शामिल रहा। लेकिन अब तो प्रदेश का कोई स्थान इससे अछूता नही है। विकट सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद राष्ट्रांतरण का यह खेल अंग्रेजों के समय में तब सफल नही हो पाया था जो आज के दौर में चंद रूपयों और सुविधाओं के लालच में लोग अपना ईमान ही नही धर्म तक बेचने को तैयार होते जा रहे है जो चिंता और संकट का वास्तविक कारण है। असाध्य बीमारी से छूटकारा के नाम पर आज गरीब और मजबूर लोगों के साथ-साथ सुविधा सम्पन्न तबके को भी निष्ठा बदलने का यह महामारी अपनी चपेट में ले चुका है। यह कहना है क्षेत्र के समाजसेवी और किसान नेता गणेश साहू का।

श्री साहू ने आज चर्चा में बताया कि धर्मांतरण वास्तव में राष्ट्रांतरण का ही एक आयोजन है। जिसे ना आमजन और ना समाज के ठेकेदार बने लोग भलीभांति समझ पा रहे है। और जब इस पूरे खेल को ही समझ नही पा रहे है तो इस मकड़जाल से बाहर निकलने का मार्ग क्यों और कैसे निकाले। श्री साहू ने साहू समाज का उदाहरण देकर समझाया कि जब समाज के प्रमुखों को लगता है कि बड़े समाज होने के कारण एकजुट रखना लगभग असंभव है तो फिर यह सब होना ही है। साहू समाज के सारे आयोजन की थीम "साहू हो साहू को वोट देना है" कि तर्ज पर सम्पन्न होने लगे है जिससे सामाजिक ढ़ाचा मजबूत करने पर बल देने की जगह साहू समाज का मंच राजनीति का अखाड़ा बनता जा रहा है।

श्री साहू के मुताबिक धन, पद, प्रतिष्ठा और यश की अंधी दौड़ में समाज प्रमुखों का शामिल होना ही सामाजिक मूल्यों के छीन होने का एक प्रमुख कारण है जो आज का कटू सत्य है। नई पीढ़ी के आसपास जब आर्दश और प्रेरणापद जीवन जीने का जीवंत और श्रेष्ठतम उदाहरणों का आभाव हो तो बहुत संभव है कि युवा तुर्क बरगला दिया जाये और मति भ्रम का शिकार हो जाये। यही समस्या का मूल जड़ है। जिसपर मतांतरण का खेल खेलने वाले को मौका मिलता है और वे अपने नापाक इरादे में सफल होते जाते है। तत्पश्चात् राष्ट्रांतरण का ना रूकने और ना थमने वाला सिलसिला शुरू होता है और सब कुछ हमारे आंखों के सामने होते हुए निस्सहाय देखते रहने और सहने विवश हो जाते है।


समाजसेवी और किसान नेता गणेश साहू ने समाज जीवन में स्वार्थी लोगों का पदों पर पहुंचने और नीति निर्माण में योगदान देने की अपेक्षा अपनी निजी अकांक्षाओं की पूर्ति में समाज की ताकत को लगाने का सनसनीखेज आरोप लगाते हुए समाज प्रमुखों से धर्मांतरण और मतांतरण के साथ-साथ राष्ट्रांतरण के इस खेल को यहीं रोकने की अपील करते हुए निजी स्वार्थ के स्थान पर समाज को महत्तव देने की नीति पर चलने पर बल देने की वकालत की है और कहा है कि अब भी देर नही हुई है जो बचा है उसे बचा लिया जाय यही कोई कम ना होगा।


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